अभिवृद्धि और विकास में अंतर व सिद्धांत

अभिवृद्धि और विकास में अंतर व अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांतआज इस आर्टिकल में हम अभिवृद्धि और विकास के बारे में जानेगे जोकि मनोविज्ञान का एक महत्वपूर्ण बाल विकास के अंतर्गत आने वाला टॉपिक है और परीक्षा में इससे कई प्रकार के सवाल पूछे जा सकते है तो चलिए जानते हैं कि “अभिवृद्धि और विकास क्या है और वृद्धि व विकास में  क्या अंतर है और साथ ही जानेंगे कि अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांत क्या-क्या है?”

अभिवृद्धि की परिभाषा

अभिवृद्धि शब्द का उपयोग केवल शारीरिक वृद्धि यानी लंबाई, वजन एवं विभिन्न अंगों में होने वाली वृद्धि के लिए किया जाता है।

फ्रैंक के अनुसार – (अभिवृद्धि)

कोशिकीय गुणात्मक वृद्धि ही अभिवृद्धि है।

विकास की परिभाषा

विकास का अभिप्राय केवल शारीरिक वृद्धि से नहीं होता है बल्कि शरीर में वृद्धि होने के साथ-साथ ही मानसिक, बौद्धिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक क्षेत्र में होने वाले परिवर्तन भी इसमें सम्मिलित किए जाने से होता हैं।

हरलोक के अनुसार विकास-

विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह परिपक्वता की दिशा में होने वाले परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम है इसके द्वारा एक बालक में नई-नई विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती है।
अभिवृद्धि और विकास में अंतर
अभिवृद्धि और विकास में अंतर

अभिवृद्धि और विकास में अंतर

अभिवृद्धि और विकास में निम्न अंतर है।

अभिवृद्धिविकास
अभिवृद्धि एकपक्षीय अवधारणा है।(शारीरिक पक्ष)विकास बहुपक्षीय अवधारणा है। (शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक)
संकुचित अवधारणा।व्यापक अवधारणा
एक निश्चित समय के बाद रुक जाती है।जीवन पर्यंत चलने वाली सतत प्रक्रिया है।
अभिवृद्धि का मापन संभव है।विकास केवल महसूस होता है।
अभिवृद्धि मात्रात्मक है।मात्रात्मक एवं गुणात्मक।
अभिवृद्धि की निश्चित दिशा नही होती है।विकास की निश्चित दिशा होती है जैसे सिर से पैर की और।
अभिवृद्धि और विकास में अंतर

अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांत

निरन्तरता का सिद्धांत

गर्भधारण से ही बालक का विकास प्रारंभ हो जाता है जो क्रमशः गर्भकाल एवं जन्म के बाद की सभी अवस्थाओं में होता हुआ जीवन पर्यंत चलता रहता है।

निश्चित क्रम का सिद्धांत 

बालक के गामक विकास सदैव एक निश्चित कर्म में ही होते हैं, जैसे भाषा का विकास सदैव LSRW – Listening , Speaking , Reading And Writing (सुनना ,बोलना, पढ़ना, और लिखना) के क्रम में ही होता है।

परस्पर संबंध का सिद्धांत

बालक का जब विकास होता है तो उसका एक पक्ष दूसरे पक्ष से प्रभावित रहता है जैसे शारीरिक विकास अच्छा होने पर मानसिक विकास भी अच्छा होगा और यही क्रम निरंतर क्रमशः संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक विकास को भी प्रभावित करता है।

सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का सिद्धांत

इसके अनुसार एक बालक पहले सामान्य क्रियाएं सीखता है और फिर विशिष्ट क्रिया । जैसे- करवट बदलना, बैठे रहना, घुटनों के बल चलना एवं खड़े होने के क्रम में।

समान प्रतिमान का सिद्धांत 

सोरेनसन के अनुसार जैसे ही माता-पिता होते हैं वैसे ही समान प्रतिमान वाली संतानों को जन्म देते हैं।जैसे- पशु के पशु, मनुष्य के मनुष्य, पक्षी के पक्षी का जन्म होता है।

दिशा का सिद्धांत

इस सिद्धांत अनुसार विकास सदैव सिर से पैर की ओर होता है या फिर केंद्र से परिधि की ओर भी कहलाता है। इसी को “मस्तकोधमुखी विकास” भी कहते हैं।

विभिन्नता का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक संतान में विकास अलग अलग पाया जाता है।

चक्राकार विकास का सिद्धांत

पहले या शीघ्रता से होने वाला विकास तब तक रुक जाता है , जब तक कि बाकी अंगों का विकास संतुलन में नही आ जाता है।

तो दोस्तो यह थे “अभिवृद्धि और विकास की सम्पूर्ण जानकारी, अभिवृद्धि और विकास में अंतर और अभिवृद्धि और विकास के सिद्धांत” आप सभी को जरूर पसंद आया होगा। इससे संबंधित कोई सवाल है तो कमेंट में जरूर पूछें और Psychology In Hindi की संपूर्ण जानकारी के लिए ब्लॉक को जरूर फॉलो करें।

About Kavish Jain

में अपने शौक व लोगो की हेल्प करने के लिए Part Time ब्लॉग लिखने का काम करता हूँ और साथ मे अपनी पढ़ाई में Bed Student हूँ।मेरा नाम कविश जैन है और में सवाई माधोपुर (राजस्थान) के छोटे से कस्बे CKB में रहता हूँ।

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